Thursday, October 20, 2011

मैं हू ऐसा दीप


मैं हू ऐसा दीप :
जो सतत जलता रहा,कभी बिन तेल, 
कभी बिन बाती के जलता रहा.
जलता रहा हूँ अंतर्मन में तेल के भी.
जलाता रहा बत्ती अपनी बिना तेल के भी.
तेल की तली को भी मै खूब जालाता रहा,
चिराग तले जो अंघेरा था, उसे मिटाता रहा.


जलना मेरा 
कभी नजर आया, कभी नहीं आया
लेकिन सच तो यही है, कभी बुझा नहीं, 
सतत जलता रहा, तो जलता ही रहा.
हवा के झोंको - थपेड़ों से जो बुझा नहीं,
वर्षा, आंधी, तूफ़ान में भी जो उड़ा नहीं .


वह नेह भरी 
तेल में, लेकिन बत्ती सहित डूब गया.
देने वालों ने दोष दीपक को ही दिया.
यह बात और है कि डूबने के पहले
दीपक ने सभ्यता-संस्कृति के अनुरूप 
कुछ और चिराग जला दिया था.


उन्होंने 
दीपक की यह परंपरा संभाल ली,
जमाने की रौ में, नयी लौ बना ली.
यह 'लौ' कुछ की समझ में आयी,
कुछ की समझ में नहीं आयी. लेकिन....
उज्ज्वल प्रकाश, वहाँ अँधेरी गलियों में,
तब भी भरपूर था, और अब भी भरपूर है.


पता नहीं 
यह कौन आ गया दिल को टटोलने?
डूबी बत्ती निकाली, लौ को लौ से सटा दी.
फिर तो दीपक और चिराग, जले तो खूब जले.
गलियारे से मंदिर तक की राह रोशन हो गयी.
कहनेवालों ने कहा, आज तो दीवाली आ गयी.
सुना दीपक ने, होठों पर मुस्कान सी छा गयी.
अधर हुए कम्पित, कपोलों पर लाली छा गयी.