Thursday, July 28, 2011

क्या मानव होना इतना कठिन है?

संस्कृति के उत्थान और
पतन के साथ ही साथ,
मानवसमाज के उत्थान
और पतन की कहानी सुनी है,
उसे इतिहास - भूगोल के आईने,
तथा युगीन सभ्यता के झरोखों से
देखा परखा भी है,

विभिन्न गोष्ठियों, - सेमिनारों में
इस पर गहन विमर्श किया है,
परन्तु धर्म के नाम पर जैसा
अधर्म, जैसी क्रूरता...., विभत्सता....,
आज दृष्टिगत हो रही है....,
क्या उसे हम धर्म कहेंगे?
क्या इस पर पुनर्विचार करेंगे?


देव मंदिर, लोकतंत्र का मंदिर,
न्याय मंदिर भी नहीं है सुरक्षित.
आदिम मनुष्य तो अशिक्षित था,
अनपढ़, गवार, निरा भावुक था..,
उसका कृत्य तो फिर भी
कुछ समझ में आता है.
परन्तु आज ....२१वी सदी में
यह कलह - कोलाहल... क्यों है?


मजे की बात यह कि धर्म के
ये सभी ठेकेदार डिग्री धारक हैं.
क्या मनुष्य आज अपने धर्म को
पहचान पाया है?
धर्म की बात छोडिये, जाने दीजिये,
क्या स्वयं को पहचान पाया पाया है?


आज का मानव न दाढ़ीवाला रहा,
न चोटीवाला, और न टाई वाला,
अंतर्जातीय वैवाहिक संबंधों के कारण,
आज वह न किसी कुल का रहा,
न किसी परिवार का और
न ही किसी परंपरा विशेष का .


आज मानव की पहचान
मात्र नंबर है, केवल नंबर...,
वह या तो मकान नंबर है,
या राशन कार्ड नंबर.
वह इस नंबर में ही हैरान है,
और निन्यानबे के चक्कर में
परेशान है...........


अंततः वही प्रश्न, आखिर वह है कौन?
क्या वह मोबाइल नंबर और फोन नंबर है?
अथवा पैन कार्ड, वोटर कार्ड, आई कार्ड है?
वह दो पहिया वाहन का नंबर है, या
तीन पहिया और चार पहिया का? ,
वह बैंक नंबर है या टिकेट नंबर है हवाई?
वह हिन्दू है, मुस्लिम है, सिख है या ईसाई?


आखिर इस सभी मान्यताओं
और व्यवस्थाओं के बीच
मात्र मानव क्यों नहीं है?
क्या मानव होना इतना कठिन है?
क्या इतना दुरूह और दुष्कर है?
परन्तु मानवता से बढकर,
क्या कुछ भी श्रेष्ठतर है?


अब दुराग्रह छोडो!,
निद्रा तोड़ो!!, तन्द्रा तोड़ो!!!
अब आगे कदम बढ़ाना होगा,
काट सभी बंधन को हमें,
मानवता को अपनाना होगा.
हां, मानवता को अपनाना होगा.
5/28/10 by Dr.J.P.Tiwari
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Friday, July 22, 2011

मानव की नई सभ्यता ?

हरे पत्तों और
मुलायम घास की खोज में ,
अपनी ही धुन में अलमस्त बकरी ;
निकल गयी थी, दूर तक जंगल में.
तभी आहट पाकर जब शिर उठाया,
तो सामने भेडिए को खडा पाया.

सकपकाई घबराई बकरी
मौत को सन्निकट पाकर,
वात्सल्य के नाम पर
सदा की भांति मिमियाई ;
युवराज! मेमने भूखे होंगे,
हमें तनिक समय चाहिए,
उन्हें भर पेट निहारने का,
दुलार्ने का, मातृत्व लुटाने का.
फिर लौट आउंगी, आपकी
छुधातृप्ति के लिए, सच कहती हूँ.

भेडिए ने विजेता की तरह,
आँखों को नचाया,मूंछों को घुमाया,
दो - चार बूंद लार टपकाया और
अभयदान दे दिया बकरी को,
जाओ ऐश करो!मेरे पुरखे बुद्धू थे
जो बकरी को ग्रास बनाते थे,
मैंने बकरी खाना छोड़ दिया
और तुझे अभयदान दिया.
जाओ दीर्घाय हो!फूलो-फलो!!
गांधारी की तरह शत-शत
बलशाली पुत्रों की माता बनो.

बकरी हैरान थी ...
इस अद्भुत परिवर्तन को देखकर
परेशान थी,भावातिरेक में बोल पड़ी -
आप महान है ! आप तो संत हैं-
युवराज!, महासंत हैं !!
जय हो! जय हो!! जंगल ने आजादी के
बासठसाल बाद गांधी - दर्शन अपनाया है;
अब तो नाचने - गाने - मुस्कराने का
मंगल अवसर पहली बार जंगल में आया है.

अरे बुद्धू ! .............
गांधीवाद को तो उनके
अनुयाइयों ने ही नहीं अपनाया,
और गांधीगिरी मुन्ना भाई को ही
मुबारक हो .हम भी प्रगतिशील है-
दिल्ली नोयडा घूमकर आये है,
इसलिए हमने गौतम,
महाबीर और गांधी का नहीं;
निठारी के सिद्धांत को अपनाया है,
और इसके लिए, पंढेर-कोली को
अपना आदर्श बनाया है.

अरे महामूर्ख !!
अब भी नहीं समझी,
तू जिसे दूध पिलाना चाहती है;
जिसपर मातृत्व और ममत्व
लुटाना चाहती है, वह तो
न जाने कब से....
मेरे गहरे उदर में समाया है.
माँ के गोश्त से स्वादिष्ट गोश्त
बच्चे का होता है, यह बात
जंगली जानवर को मानव की
नई सभ्यता ने सिखाया है.

कुछ क्षण रुक कर
भेड़िया पुन: बोला .....
मत कहो मुझे युवराज
और मत कहो मुझे संत.
ये विशेषण हैं इंसानों के लिए,
नहीं है उसकी बुद्धि का अंत.
वे मानव हैं - मानवता
छोड़ सकते हैं, वादे तोड़ सकते हैं.
स्वधर्म-राजधर्म भूल सकते हैं,
दोस्ती तोड़ सकते हैं,
कभी देव, कभी दानव,
कभी संत-महंथ बन सकते हैं.

हम तो जानवर हैं,पशु हैं,
कैसे छोड़ दे - पाशविकता?
फिर भी उनसे अच्छे हैं,
जंगली और हिंसक होते हुए भी,
वादे निभाते हैं, पेट भरने के बाद,
नहीं करते दूसरा शिकार.
बचा खुचा शिकार औरों के लिए
छोड़ जातें हैं. परन्तु देखो
यह इंसान कितना अजीब है,
जूठन भी फ्रिज में रखता है,
वह केवल पेट नहीं,
फ्रिज और गोदाम भरता है.
कहीं कोई भूखा मरता है
तो कहीं अन्न सड़ता है.
सच कहूँ तो मैं भी पहले
ऐसा नहीं था ......
मुझे मक्कार तो मानव की
नई सभ्यता ने बनाया है.