Sunday, January 12, 2014

बात

 

बात पर याद आ गयी

आज फिर से वही बात,
उनके-मेरे, मेरे-उनके बीच
हुयी थी कभी जो, वही बात.
पता नहीं उसदिन कक्षा में
किस बात पर उन्होंने हौले से
एकबार मुस्करा दिया था और
शायद उन्हें पता भी न हो कि
उस हास ने तब क्या किया था,
वह ‘मृदुल हास’ उतर गया था
बहुत दूर गहराई तक दिल में.

पहले पहल हुई थी जो बात
क्या याद होगी उन्हें वह बात?
वह प्यारी सी निःशब्द बात
शायद नहीं? किन्तु मुझे याद है,
न अक्षर, न शब्द, न वाक्य,...
फिर भी था कितना अर्थपूर्ण
भावपूरित, वह मौन वार्तालाप.

समय बीता, हालत बदले
अब बात होती बहस होती
अब शब्द होते, वाक्य होते
वाक्य में ही घात होते
घात में ही परिघात होते,
कितने क्रूर व्याघात होते.
अब बात–बात में,
बात ही तो टकराते हैं
जो दिन में सितारे दिखाते
और रात में सूरज की
दोपहरी आग बरसाते,

बरसाने को बरसा सकते हैं
ये सावन की फुहार भी,
बसंत की मधुमय रसधार भी,
लेकिन होती है बरसात यहाँ
शब्द-वाणों की, कर्कश-तीरों की.
शब्दकोशों के कर्कश शब्द भी
शायद नहीं होते इतने धारदार
जितने निगढ़ शब्द होते असरदार,

अब तो शायद शब्द भी ये
कुछ भोथरे से हो चले हैं
क्योकि आज कल वे
मौन सा कुछ हो चले हैं,
शब्द सुनने को तरसते कान मेरे
हाथ जोड़े खड़े हैं जुबान को
भैया ! शुरू करो कोई बात
छटपटा रही मन में यह बात.
शायद दिख जाए, मृदुल वह हास
लेकिन जानता हूँ फिर सहना होगा
वही सब आघात, प्रतिघात, व्याघात.

खो गयी कहाँ अब वो कहानी?
उड़ गयी कहाँ वो रूह सुहानी?
अब रह गयी है बात में ही
बच गयी जो कुछ कहानी ..
न फिर तुम कभी मुस्करा पायी
न भाव मेरे बदल पाए आजतक,
एक कृत्रिम हँसी ओढ़े हुए तुम भी
दिखावे की चादर ओढ़े हैं हम भी.
सोचता हूँ शायद था वह तेरा बालपन
और था मेरा भी वह एक भोलापन,
लेकिन अब तो दोनों ही प्रौढ़ हुए
सोचो ! क्या सचमुच में प्रौढ़ हुए?

डॉ. जयप्रकाश तिवारी

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